राजनैतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे
के बाहर रखा जाए ऐसा प्रतिज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय में दे कर केन्द्र सरकार ने
मानो देश का काला धन सफेद करने को ही अनुमति दे दी है। कुछ पार्टियॉं तो पहले ही
घोषित कर चुकी है कि राजनैतिक दलों को प्राप्त रु. 20,000 से
कम दान राशि का हिसाब देना जरुरी नहीं है।
फिलहाल
कई दल चुनाव हेतु बडे उद्योजकों से लाखों की तादाद में दान राशि ले कर उसे 20,000 के
कई हिस्सों में विभाजित कर देते हैं। उन टुकडों को फलाना, ढीकला, ऐसा, गैरा, नत्थू, खैरा
जैसे कोई भी मनगढंत मान दे कर लाखों-करोडों की मात्रा में काला धन सफेद किया जाता
रहा है।
सूचना
का अधिकार कानून के डर से फिलहाल राजनैतिक दल कुछ हद तक तो संयम बरतते है। सदि
सूचना का अधिकार से उन्हें मुक्ति मिल गई तो राजनैतिक दल चुनाव के नाम पर
लाखों-करोडों की दान राशि खुल्लम खुल्ला ले लिया करेंगे और बोगस नाम दे कर काले धन
को सफेद करने में जुट जाएंगे इस सम्भावना को नहीं नकारा जा सकता।
प्रधान
मन्त्री श्री नरेन्द्र मोजी जी ने संसद चुनाव के दौरान जनता से वादा किया था कि विदेशों में रखा गया देश का काला धन सौ
दिन की अवधि में वापिस ले आएंगे और हर नागरिक के बैंक खाते में उसके 15 लाख
रुपए जमा करवाएंगे। वह काला धन तो वापिस आने से रहा, मगर
अब तो देश में का काला धऩ सपेद कराने का राज
मार्ग राजनैतिक दलों को प्रशस्त करवाने का प्रयास किया जा रहा है ऐसा साफ
दिखाई दे रहा है।
जब से
इस देश में गणतन्त्र कायद हुआ है, प्रजा का
स्थान सर्वोपरि है। सरकार खजाना जनता का है। उसमें का धन कहॉं, कैसे
खर्च किया जा रहा है यह जानने का हर नागरिक को मालिक की हैसियत से मूलभूत हक बनता
है। इसी लिए आरटीआई कानून बना है। राजनैतिक दलों को सरकार की तरफ से कई रियायतें
हासिल है। यानि की जनता का धन उन्हें मिल रहा है। ऐसे में उस धन क बारे में
जानकारी लेने का अधिकार जनता के पास होना लाजिमी है। क्यों कि जनता मालिक है।
सूचना का अधिकार कानून के लिए महाराष्ट्र राज्य में सन1995 से
ले कर 2002 तक आन्दोलन होते रहे। सन 2002 में पहले
महाराष्ट्र राज्य में यह कानून बना और फिर सन 2005 में
केन्द्र में भी बना।
इस कानून के बनने के दस वर्ष पूरे हो जाने के बाद
अब इस कानून का गैरफायदा लिया जाने का डर सरकार को क्यों लगने लगा है। क्या वजह है
इस डर की?
एक तरफ राजनैतिक दल लाखों-करोडों की राशि चुनाव के
नाम पर दान में लेते हैं। तो दूसरी तरफ सरकार से रियायतें भी पाते हैं। सवाल तो यह
बनता है कि इन दलों का स्पेशल ऑडिट सरकार अथवा चुनाव क्यों नहीं करता है?
इन दलों को
प्राप्त हर रुपये का हिसाब लिया जाए। देश
की सभी संस्थाओं का ऑडिट अनिवार्यतः होता है फिर राजनैतिक दलों का का क्यों न हो?
केन्द्र सरकार दलील दे रही है कि दलगत राजनीति में इसका गलत फायदा
उठाया जाने की सम्भावना है। यह दलील सर्वथा अनिचित है. उल्टा तो सूनचा का अधिकार
के दायरे में आ जाने पर जनता को पूरा ब्यौरा देना पडेगा और फिर दान में मिला काला धन सफेद करना मुश्किल हो जाएगा, इसी
डर से जनता को भ्रमित किया जा रहा है।
सूचना का अधिकार कानून के तहत
कानून के कलम 4 में 17 मुद्दे सभी राजनैतिक दल और सरकार का
हर विभाग यदि इण्टरनेट पर अपलोड करें तो इस कानून का गलत फायदा उठाना किसी भी
व्यक्ति के लिए असम्भव होगा। क्यों कि इन 17
मुद्दों में इतनी सारी जानकारी मिल पाएगी ेकि किसी भी नागरिक को और सूचना मॉंगने
की शायद ही जरुरत पडे। क्या केन्द्र सरकार कानून के कलम 4 के 17
मुद्दों से अपरिचित है
? या
जान बुझ कर देश वासियों को भ्रमित किया जा रहा है?
राजनैतिक दलों को आरटीआई कानून
के बाहर करने का सीधा मतलब जनतन्त्र का गला घोंटना है। सरकार ने चुनाव प्रचार के
दौरान बार बार आश्वासन दिया था तथा अपनी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में भी साफ
कहा था कि सत्ता में आने पर हमारी सरकार की पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार मिटान की
होगी। सूचना का अधिकार कानून के कारण यद्यपि भ्रष्टाचार का खात्मा भले ही न हो
पाया हो पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि देश के भ्रष्टाचार पर काफि हद तक
अंकुश लग चुका है।
एक तो राजनैतिक दलों में
भ्रष्टाचार अनाप शनाप पनप चुका है, ऐसे में उन
दलों को आरटीआई में से मुक्त करने का सीधा मतलब चुनाव में दिये आश्वासन से साफ
मुकर जाना है कि हम भ्रष्टाचार मिटा कर रहेंगे।
भ्रष्टाचार को रोकने की सरकार
की यदि वास्तविक मंशा होती तो पिछली सरकार में और इस सरकार में कुछ तो फर्क दिखाई
देता। कहीं भी जाइये आज भी बिना घूस दिए जनता का कोई काम ही नहीं हो पाता। नई
सराकर के सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार में कोई कम कसर नहीं हुई है। हकीकत तो यह है
कि बढते जा रहे भ्रष्टाचार के नतीजतन महँगाई भी बजाय कम होने के बढती ही जा रही
है। सामान्य आदमी का जीना दूभर हो गया है। फिर फर्क ही क्या रहा पिछली सरकार में
और इस सरकार में? उम्मीद थी कि जन जीवन से सीधी जुडी
समस्याएं भ्रष्टाचार और मँहगाई के विषय में ठोस कदम उठाये जाएंग। अफसोस कि ऐसा हो
न सका। चुनाव के पूूर्व आश्वासन दिये गये थे कि सत्ता में आते ही वन रँक वन पेन्शन
लागू करेंगे, खेती की पैदावार के लागत मूल्य का डेढ गुना बाजार मूल्य किसान को
मिलेगा, लोकपाल व लोकायुक्त कानून के अमल द्वारा भ्रष्टाचार पर कारगर कदम
उठाएंगे। पर सभी आश्वासन धरे के धरे रह गए।
16 से 24
अगस्त 2011 के दौरान लोकपाल और लोकायुक्त कानून की मॉंग को ले कर देश भर में
जनता के आन्दोलन हुए थे। देश भर में लाखों की तादाद में लोग सडक पर उतर आए थे। इस
हकीकत से प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी नावापिफ तो नहीं है। आज मन्त्री पद
पर आसीन कई महानुभव उस वक्त विपक्ष में थे। संसद में लोकपाल व लोकायुक्त कानून 17
दिसम्बर 2013 को भारी मताधिक्य से पारित हुआ। राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर भी उस
पर हो चुके है। नरेन्द्र मोदी सरकार को मात्र उस पर अमल करना भर तो था। सत्तासीन
हो कर सवा साल हो चुका पर लोकपाल-लोकायुक्त कानून पर कोई पहल नहीं की गई। सभी
राज्यों में लोकपाल कानून की तर्ज पर लोकायुक्त की नियुक्ती कर कानून लागू करते तो
भी देश के भ्रष्टाचार पर रोक लगा पाना सम्भव था। पर सरकार भ्रष्टाचार के विषय में
कुछ कर ही नहीं रही।
किसानों पर घोर अन्याय करने
वाले भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ देश भर के किसानों के विरोध के बावजूद बार बार
अध्यादेश ला कर कानून करने की जिद पर सरकार अडी हुई है। तीन बार अद्यादेश निकल
चुके हैं। लेकिन देश व जनता के दुर्भाग्यवश भ्रष्टाचार की रोकथाम करने वाला लोकपाल
लोकायुक्त कानून बन जाने पर भी उस पर अमल नहीं किया जाता। सभी राजनैतिक दलों का
आरटीआई के दायरे में रहना अनिवार्य होगा। जिन संस्थानों को सरकारी खजाने से लाभ
मिलता हो उनके बारे में जानकारी लेने का नागरिकों का हक बनता है। यदि सरकार
राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में से मुक्त करने पर तुली रहेगी तो जनता को फिर
से सडक पर उतर कर आन्दोलन करना होगा।
राजनैतिक दल, चुनाव
आयोग, केन्द्र सरकार इन सब से बढ कर यूं तो जनसंसद सर्वोच्च स्थान पर है।
मसलन देश के हर मतदाता नागरिक के विचार को जानना जरुरी है। मतदार ही तो इस देश का
मालिक है। सरकारी खजाना उनका अपना है। उसमें का पैसा जिस पर खर्च किया जाता हो उस
बारे में जानकारी लेने का हर नागरिक को मूलभूत अधिकार बनता है। राजनैतिक दलों को
सूचना अधिकार के दायरे के परे रखाना यानि जनतन्त्र को अपमानित करना है।
मजबूर हो कर 2
अक्टूबर 2015, महात्मा गांधी जयंती तथा लाल बहादुर शास्त्री जयंती
के अवसर पर रामलीला मैदान, नई दिल्ली में
अनशन करने जा रहा हूं। मेरे विचारों से सहमति रखने वाली समविचारी जनता से इस
आन्दोलन में शामिल होने की अपील है।
धन्यवाद।
भवदीय,
कि. बा. तथा अण्णा हजारे.
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