Wednesday 29 June 2016

"गांधीजी कहते थे वो सच? या आप कहते है वह?".... प्रधानमंत्री जी को चिठ्ठी.

प्रति,
मा. नरेन्द्र मोदी जी,
प्रधान मन्त्री,
भारत सरकार

दिनांक 25 जून को आपके करकमलों से महाराष्ट्र के पुणे में स्मार्ट सिटी मिशन योजना का शुभारम्भ हुआ। आपने बताया कि शहरी करण संकट नहीं, मौक़ा है- उपयुक्त अवसर है
महात्मा गांधी जी कहा करते थे कि गाँव में चलो। आप कहते हैं शहरी करण संकट नहीं है। हम पसोपेश में पड गए कि आपका कहना सही मानें कि महात्मा गांधी का? गांधी जी का कहना था कि प्रकृति के शोषण करने से होने वाला विकास शाश्‍वत विकास नहीं हो सकता। कभी न कभी उसका विनाश ज़रूर होगा। शहरी करण के कारण आज ही पेट्रोल, डीज़ल, रॉकेल, कोयला जैसे संसाधनों का अमर्याद शोषण हो रहा है। हज़ारों नहीं, लाखों टन पेट्रोल, डीज़ल, रॉकेल, कोयला जलाया जा रहा है। गाँवों का विकास करने में इतना तो शोषण नहीं होगा।
जिस मात्रा में पेट्रोल, डीज़ल, रॉकेल, कोयला जल रहा है, उतनी ही मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साईड बनता जा रहा है। उस कारण से बीमारियाँ फैल रही हैं। अस्पताल हर जगह पर खचाखच भरे हुए हैं, मरीज़ों को जगह मिलना दुश्‍वार हो गया है। तापमान बढता जा रहा है। कई स्थानों पर गर्मी में 50 डिग्री के ऊपर हो गया। प्राणिमात्र के जीवन को ख़तरा पैदा हो गया है। बढते तापमान के चलते हिमशिखरों की बर्फ़ पिघलती जा रही है। उसका नतीजा यह हुआ कि समुद्री पानी की सतह ऊपर उठने लगी है। समुद्री किनारों के शहरों को ख़तरा पैदा हो चला है। यह तो वैज्ञानिकों का मानना है। पर आप कहते हैं शहरी करण संकट नहीं, मौक़ा है- उपयुक्त अवसर है
शहरी करण के चलते दिन ब दिन बढती जा रही शहरों की जनसंख्या और उस बढती जनसंख्या की ज़रूरतें बढती ही जा रही हैं। पानी की समस्या विकराल हो चली है। कृषि प्रधान देश भारत में कृषि के पानी में कटौती हो रही है और शहरों की प्यास बुझाने में उसे लगाया जा रहा है। दूसरी ओर, बाँधों की कैचमेण्ट एरिया- जलग्रहण क्षेत्र में आवश्यक उपचार न होने के कारण खेतों की मिट्टी का बहाव बढता जा रहा है और यह मिट्टी बडे बाँधों में जा कर जमा हो रही है। हर साल बारिश के मौसम में बहते पानी के साथ हज़ारों टन मिट्टी (खेतों की टॉपसॉयल) बहती हुई बाँधों में जा पहुंचती है। सभी बाँधों की तलछटी में साद जमा हो चुकी है। परिणामत: बाँधों की जलसंग्रह क्षमता भारी मात्रा में कम हो चली है। यह संकट बहुत बडा है। डैम मिट्टी से भरते जा रहे हैं। इस समस्या की विकरालता इस क़दर है कि डैम का बैक वॉटर 60/70/80 किमी तक फैला हुआ तथा डैम की ऊंचाई 250/300 मीटर होती है। इतने विशाल क्षेत्र के तले मिट्टी जम चुकी है। यह तो जैसे मिट्टी की पहाडी है। कौन उसे निकाल पाएगा? न यह सरकार के बस का काम है न ही जनता के।
इन्सान को मरना पसन्द नहीं है, फिर भी आयु पूरी होने पर मृत्यु हो ही जाती है। ठीक उसी तरह हमारे न चाहने पर भी मिट्टी से भरते जा रहे इन बाँधों की मृत्यु को कौन रोक सकता है? शायद हमारे जीवन काल में यह न भी हो, पर क्या आने वाली पीढियों के लिए हम इस संकट को छोड जाएं?
प्रकृति से जो भी संसाधन हम लेते जा रहे हैं, उनकी भी आख़िर कोई सीमा है। एक-एक कर सभी संसाधन ख़त्म होते जाएंगे। फिर संकट गहराता जाएगा।
 इसी लिए गांधी जी कहते थे, विकास का केन्द्र बिन्दु गाँव हो। गाँव में गिरने वाली बारिश के पानी को और पानी के साथ बहती मिट्टी को गाँव ही में रोक लो। ता कि वह गाँव ही में रहे, बह कर बाँध में न जाए। इसके कारण गाँव का भूजल स्तर ऊपर उठेगा। कृषि विकास होगा। गाँव के रहने वालों को गाँव के गाँव में  खेती में काम मिल जाएगा। फिर उनको शहर में जाने की नौबत ही नहीं होगी। न सरकार के सामने बेरोज़गारी की समस्या रहेगी। न ही प्रकृति का शोषण होगा। गाँव के लोग स्वयम्पूर्ण होंगे, आत्म-निर्भर होंगे। गाँव की अर्थ व्यवस्था मज़बूत होगी। देश की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए गाँव की अर्थ व्यवस्था को सुधारना ज़रूरी है, ऐसा महात्मा जी का मानना था। आज़ादी के 68 वर्षों में हम देश वासी अनुभव कर चुके हैं कि शहरों की अर्थ व्यवस्था के बदलने से देश की अर्थ व्यवस्था नहीं सुधरेगी।
गांधी जी कहते थे कि देश को बदलना है तो पहले गाँव को बदलो। आप कहते हैं कि स्मार्ट सिटी बनानी है। भारत वासी उलझन में हैं कि आपको सही मानें कि महात्मा गांधी को?
हम जैसे कुछ लोगों ने महात्मा गांधी जी के विचारों पर आधारित कुछ प्रयोग कर देखे हैं। जिस गाँव की 80 प्रतिशत जनसंख्या को आधे पेट खाना नसीब था, वहीं से करोडों रुपयों की लागत में साग-सब्ज़ी, प्याज़ बिकने जा रहा है। अकाल के बावजूद गाँव में से 5000 लीटर दूध का संकलन रोज़ हो रहा है। गाँव के युवाओं को गाँव ही में काम मिला है और बाहर जा कर नौकरी की जो तनखा मिलनी थी उससे ज़्यादा पैसा गाँव ही में मिल रहा है। उन दिनों जब गाँव में काम न मिलने पर 5/10 किमी. दूर पर जा कर रोज़ काम करना पडता था वहाँ आज मज़दूर न मिलने से बाहर के परिवार मज़दूरी करने आते हैं। गाँव में से जाति-पाँति के भेदभाव को मिटा दिया गया है। 2500 की जनसंख्या वाला यह गाँव एक परिवार बन के रहता है।
हमारा देश गाँवों में बसा है, गाँव का सर्वांगीण विकास ही देश का विकास होगा ऐसा गांधी जी कहते थे।
मैं जानता हूं कि मेरे पत्रों का जवाब आप नहीं देते हैं, फिर भी आपको पत्र लिख रहा हूं। यह देश किसी व्यक्ति, पक्ष, पार्टी विशेष का नहीं है। देश का हर नागरिक इसका मालिक है। सेवक कहलाने वालों को खरी-खोटी कहने का अधिकार उसे प्राप्त है।
इसी लिए 30 वर्ष आन्दोलनों के माध्यम से देश वासियों को जगाने का प्रयास किया है और करते रहूंगा। आप स्मार्ट सिटी में दिलचस्पी रखते हैं, कुछ दिलचस्पी लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति में रखते तो अच्छा होता। 2 साल हो गए फिर भी आज भी आम नागरिक को भ्रष्टाचार से राहत नहीं मिली। बिना पैसे दिए काम नहीं होता यह हक़ीक़त है। इसी कारण लोकपाल-लोकायुक्त कानून बने हैं, उनको अमल में लाना ज़रूरी है।
पूरी ज़िन्दगी में मैंने कभी बैंक बैलेन्स नहीं बनाया। खाने की थाली और सोने के बिस्तर के अलावा कोई जमाखोरी नहीं की। एक ही संकल्प को ले कर जी रहा हूं कि जब तक जीना है वह गाँव, समाज और देश की सेवा के लिए जीना है और मरना भी उसी के लिए। इस व्रत के कारण जब समाज और देश के हित में बाधा पहुंचाने वाली बात होती है तो मन व्याकुल हो उठता है। शहरी करण को उपयुक्त अवसर मानने वाली आपकी बात को ले कर मन में खलबली पैदा हुई इस कारण पत्र लिख बैठा हूं।
सन 1857 से 1947 के 90 सालों में लाखों लोगों ने कुर्बानी दी, फिर भी आज देश में लोगों का, लोगों ने, लोक सहभागिता से चलाया हुआ लोकतन्त्र नहीं आया। क्या उन वीरों का बलिदान व्यर्थ गया? कई बार आपने भी कहा कि सत्ता का विकेन्द्री करण हो कर जब तक लोगों के हाथ में सत्ता नहीं आएगी तब तक देश में सही लोकतन्त्र नहीं आएगा। आपने कहा ज़रूर मगर करते नहीं यह लोगों के मन की बात है।
सच बोलने पर कभी सगी माँ तक गुस्सा हो जाती है। समाज और देश के हित में सच सच कहते रहता हूं। सम्भव है आप भी गुस्सा हुए होंगे, तभी तो पत्र का जवाब नहीं देते हैं। यद्यपि मैं नहीं मानता कि पत्र लिख कर मैं कोई गलती कर रहा हूं, फिर भी यदि आप ऐसा सोचते होंगे तो क्षमाप्रार्थी हूं। 
सधन्यवाद,
भवदीय, 
कि. बा. तथा अन्ना हजारे