Wednesday 22 April 2015

3 अप्रैल 2015 के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में बदलाव जरुरी...

प्रति,
मा. नरेंद्र मोदी जी,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
साऊथ ब्लॉक, राईसीना हिल,
नई दिल्ली - 110011.

 देश भर के किसानों के प्रदीर्घ संघर्ष के बाद, अंग्रेज़ सरकार के सन्‌ 1894 बनाये हुए भूमिअधिग्रहण कानून को बदल कर, स्वाधीनता के 68 वर्षों बाद, सन्‌ 2013 में भूमिअधिग्रहण, पुनर्वास व पुनर्स्थापन में पारदर्शिता व उचित मुआवजे के अधिकार का नया कानून विगत सरकार को बनाना पडा। उक्त कानून की कुछ मुद्दे किसान हित के पक्ष में थे। नई सरकार ने सत्तासीन होने पर इस कानून में बदलाव हेतु 31 दिसम्बर 2014 को अध्यादेश जारी किया, जिसमें किसान हित के कई सारे मुद्दे में बदल हुआ है। इन बदलावों के किसानों पर अन्यायमूलक होने के कारण देश के कई स्वयं सेवी संगठन, किसान संगठन व किसान हित की सोच रखने वाले अनेक विध संस्थान व संगठनों ने विरोध प्रदर्शित किया। देश के कई भागों में आंदोलन शुरु हुए। सरकार को यह आश्वासन देना पडा कि अगर यह कानून किसान विरोधी है तो हमउसमें उचित संशोधन करेंगे। फिर 3 अप्रैल 2015 को सरकार द्वारा नया अध्यादेश जारी हुआ। पर उसमें भी आश्वासन के मुताबिक किसान हित के पक्ष में कोई संशोधन नहीं हुआ। इसलिए विरोधी आन्दोलन भी थमने का नामनहीं ले रहे। यह अध्यादेश किसान हित के पक्ष में है ऐसा बार बार सरकार द्वारा बताया जा रहा है और जनता को भ्रमित किया जा रहा है। अब देश की जनता के सामने हमने यही बात यथा-तथ्य रखने की कोशिश की है कि ये किसान हित में है या किसान विरोधी है।

1)     अध्यादेश द्वारा किये गये बदलाव : 27 सितम्बर 2013 के कानून में प्रयुक्त निजि कम्पनी (Private Company) शब्द प्रयोग स्थान पर निजि संस्थान (Private Entity) शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस बदलाव के करने के पीछे सरकार की मंशा क्या है?
 सरकार के इरादे : निजि कम्पनी शब्द प्रयोग के कारण कम्पनी एक्ट 1956 के अधीन रहते सरकार अपनी मर्ज़ी के संस्थानों को ज़मीन आबंटित नहीं कर पाती थी, और चूं कि सम्भवत: सरकार का इरादा वैसा था, इस लिए यह बदलाव लाया गया। एकल संस्थान, साझा (भागीदारी) संस्थान, कम्पनी, कॉर्पोरेशन, स्वयंसेवी संगठन या कानूनन संस्थापित किसी भी संस्थान को भूमिआबंटित करना अब सम्भव है जो कि पहले नहीं हो पाता था। हो सकता है कि, सरकार के करीबी लोगों को लाभ मिले इस हेतु से यह बदलाव लाया गया है। अब कोई निजि संस्थान किसी प्रकल्प: स्कूल, कॉलेज, होटल आदि बनाना चाहे तो नये अध्यादेश के तहत्‌ किसानों की ज़मीन अधिग्रहित कर इन संस्थानों के लिए सरकार उपलब्ध करा सकती है। परिणामी गरीब किसानों की हज़ारों एकड ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है और उन्हें भूमिहीन बनाया जा सकता है। इसका लाभ समाज के धन सम्पन्न वर्ग के संस्थानों को ही मिलने वाला है। यह किसान हित के विरोधी तो है ही। क्या सरकार का यही इरादा है कि, अपने करीबी लोगों को इसका लाभ मिले? इसके सिवा अन्य क्या कारण हो सकता है, जो निजि कम्पनी के स्थान पर निजि संस्थान को लाना पडे?

2)                 सन्‌ 2013 भूमिअधिग्रहण मुख्य कानून के विभाग 2 का उपविभाग 2 में अन्य प्रावधान के पश्चात्‌ निम्न प्रावधानों का समावेश किया गया है। खण्ड 10अ में उल्लेखित प्रकल्प तथा उस में दिए उद्दिष्टों के लिए किये गये भूमिअधिग्रहण को इस उपविभाग की शर्त 1 के प्रावधान अनुसार छूट मिलेगी। मुख्य कानून 2 का उपविभाग 1 में अन्य प्रावधानों के पश्चात्‌ किए गये प्रावधानों के समावेश के कारण 10अ में उल्लेखित प्रकल्पों को 80 प्रतिशत ज़मीन मालिकों की पूर्व सम्मति की शर्त में से छूट मिल गई है।
 सरकार के किये इन बदलावों के चलते अब निजि संस्थान व उद्योजकों के वास्ते अपनी मर्ज़ी के मुताबिक किसानों की ज़मीन अधिग्रहित करना सरकार के लिए सम्भव हो गया है। इसका सीधा असर यों होगा कि, किसान अपने मूलभूत अधिकारों से हाथ धो बैठेगा। जनतन्त्र विरोधी यह कानून किसानों पर अन्याय मूलक है। सालों साल जो उस ज़मीन के स्वामी रहे हैं, उनकी ज़मीन उनकी अनुमति के बगैर छीन कर उद्योजकों या निजि संस्थानों को मुहैया करवाने की कृति सा़फ दर्शाती है कि, सरकार के क़दमअब बजाय जनतन्त्र के, तानाशाही की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।
अ)  भारत अथवा देश के किसी हिस्से की रक्षा हेतु या राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु आवश्यक प्रकल्प जिनमें संरक्षण सिद्धता व रक्षा सामग्री उत्पादन प्रकल्प का समावेश हो।
निजि संस्थानों का समावेश रक्षा सामग्री उत्पादन प्रकल्पों में करने पर रक्षा सामग्री के दुरुपयोग होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। इस कारण देश की अन्तर्गत सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है। इसे देश अथवा देश के किसी हिस्से की सुरक्षा का ख़याल कहना आत्मवंचना ही होगी। केवल मुना़फा खोरी करने वाले निजि संस्थानों को किसानों की ज़मीन उनकी अनुमति के बग़ैर मुहैया करवाने की कृति किसानों के हित में कतई नहीं है, उन पर अन्याय कारी है। रक्षा सामग्री उत्पादन में संलग्न निजि संस्थानों को देश के शत्रु राष्ट्र कई प्रलोभनों में उलझाने की कोशिशें भी कर सकते है। क्या ये निजि संस्थान उन  प्रलोभनों से ख़ुद को बचा पाएंगे? कहीं दुश्मनों से सॉंठ-गॉंठ कर बैठे तो? हमें लगता है कि इस विषय में गम्भीरता पूर्वक पुनर्विचार करना ज़रूरी है।

इ)    बिजली सप्लाई से ले कर अन्य ग्रामीण इलाके में मूलभूत सुविधा के अन्य प्रकल्प। इस कानून के तहत्‌ ग्रामीण विभागों में मूलभूत सुविधा प्रकल्पों की व्याख्या बडी लम्बी चौडी की गई है। मगर उस में स्पष्टता का अभाव है। ब्यौरे के अभाव में सुविधा प्रकल्प का नामले कर कोई उद्योजक, कोई निजि संस्थान अपने मन मा़िफक कोई भी उद्योग वहॉं पर ला सकेंगे और फलस्वरूप बडे पैमाने पर किसानों की भूमि अधिग्रहित होगी, इस में नुकसान किसानों का ही होगा।

ई)    गरीब जनता को घर तथा वाज़िब (कम) दामवाले गृह प्रकल्प। यहॉं पर भी वाज़िब मूल्य की व्याख्या में स्पष्टता का अभाव है। कैसे भरोसा करें कि इन गृह प्रकल्पों का सोंग ओढ कर गृह निर्माण व्यवसायी तथा भू-माफिया इसमें घुसपैठ नहीं कर पाएंगे? कई शहरों में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं, और हो भी रही हैं। इस पर से ज़ाहिर तो यही हो रहा है कि, सरकार भी यही चाहती है कि किसानों की ज़मीनें बडे पैमाने पर बग़ैर अनुमति के अधिग्रहित की जाएं और गृह निर्माण व्यवसायियों को दी जाएं। किसानों की ज़मीन की लूट करने हेतु भू-माफिया इन नितियों का लाभ उठा सरके है। ज़रूरी है कि सरकार इन स्थितियों का गहन अध्ययन करें और सही दिशा में क़दमउठाएं।

उ)     सम्बन्धित सरकारें व उनके उद्यमसंस्थानों द्वारा स्थापित उद्यमविभाग जिनके लिए रेल मार्ग अथवा सडक के दोनों तरफ की 1 किमी ज़मीन का अधिग्रहण किया जाएगा। कानून में किया गया यह प्रावधान देश के पर्यावरण तथा लोक तन्त्र की दृष्टि से गम्भीर चिन्ताजनक है। हमारे देश में करीब 62,000 किमी रेल मार्ग, 92,000 किमी लम्बे राष्ट्रीय महामार्ग, तथा 132,000 किमी लम्बाई के राज्य महामार्ग हैं। कितने लाख एकड ज़मीन का अधिग्रहण होगा इसका अन्दाज़ा लगा पाना मुश्किल ही है।
 सडकों के दोनों तऱफ वृक्षों की कतारें हैं। बडे परिश्रमपूर्वक करोडों रुपयों की लागत से इन वृक्षों का संवर्धन हुआ है। इस निर्णय की चपेट में ये सभी वृक्ष आ गये हैं। अगर ये वृक्ष कट जाते हैं तो पर्यावरण की असीमित हानि होगी। औद्योगिक इकाइयों के बढते जाने से एक तऱफ रोज़ाना लाखों टन कोयला, डीज़ल, पेट्रोल, रॉकेल आदि इन्धन जलाये जाते हैं। उनमें से निकलने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड की बढती मात्रा से बीमारियॉं बढ रही हैं, पर्यावरण की हानि हो रही है, तापमान बढता जा रहा है। दिन-ब-दिन पर्यावरण का सन्तुलन बिगड रहा है। ऐसी स्थिती में सडकों के दो-तऱफा लगे वृक्षों का कटना बडा ही दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगा। पर्यावरण की हानि के प्रति बे़िफक्र रवैया, बग़ैर किसानों की अनुमति के उनकी लाखों एकड ज़मीन का अधिग्रहण केवल इसी बात का संकेत करता है कि इस सरकार को न तो लोक तन्त्र की परवाह है न ही किसानों के हित का ख़याल, उनके दिल में ख़याल होगा तो सिर्फ उद्योजकों का, अपने करीबी लोगों के विविध संस्थानों का।


ए) निजि-सरकारी साझा प्रकल्पों सहित सभी मूलभूत सुविधा प्रकल्प व सामाजिक सुविधा प्रकल्प जिनमें ज़मीन पर सरकार का स्वामित्व बना रहता है। यह तो ठीक ही है कि सरकार का स्वामित्व बना रहेगा, फिर भी ज़रूरी है कि अधिसूचना जारी होने के पूर्व, ऐसे प्रकल्प के लिए आवश्यक न्यूनतमज़मीन के मद्देनज़र सम्बन्धित सरकार भूमिअधिग्रहण की व्याप्ति सुनिश्चित करे। उसमें भी कानून के तहत सर्वेक्षण करवा कर अनुपजाऊ बंजर ज़मीन का ही अधिग्रहण करे। इस बदल में भी स्पष्टता का अभाव ही है। निजि-सरकारी साझा प्रकल्प के माने कौन से प्रकल्प इस बारे में भी स्पष्टता नहीं है। वही बात है मूलभूत सुविधा प्रकल्पों की या सामाजिक सुविधा प्रकल्पों की। स्पष्टता के अभाव में ऐसे प्रकल्पों को सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन में से भी छूट देने की बात सर-असर किसान हित के विरोध में है। कानून जब बनता है तो उस कानून की हर बाबत में स्पष्टता का होना निहायत ज़रूरी है। अगर नहीं होगी तो अपने अपने हित के परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ निकालने को हर किसी को स्वतन्त्रता होगी, और इसमें ठगा जाएगा केवल बेबस किसान। इस लिए ज़रूरी है कि सरकार हर बाबत को स्पष्ट करे। किसानों की ज़मीन बग़ैर उनकी अनुमति के निजि संस्थान तथा उद्योजकों को उपलब्ध करवाने से किसानों के मूलभूत अधिकार स्वातन्त्र्य पर ही आँच आ रही है। यह लोकतन्त्र के विरोधी है। कुछ समझ नहीं आता जब सरकार कहती है कि इस कानून में किसानों के हित की रक्षा की गई है। अगर ऐसा है तो सरकार इसे स्पष्ट करे। सरकार का कहना यूं भी है कि अनुपजाऊ ज़मीन तथा बंजर ज़मीन का सर्वेक्षण करा कर रिकार्ड कराने में जनता को भ्रमित किया जाता रहा है। क्या है इसका मतलब? किस लिए यह सब हो रहा है?

 देश की जनता और हमभी इसी लिए मॉंग करते हैं कि देश भर की कुल ज़मीन का सर्वेक्षण करना चाहिए। उनकी स्तर के अनुसार उन्हें क्लास 1 से 6 तक प्रमाणित करें। क्लास 1 से 4 तक की ज़मीनें उद्यमक्षेत्र को नहीं देनी चाहिए। क्लास 5 6 की ज़मीनें उद्यमक्षेत्र को उपलब्ध कराने का कानून बनाया जाना चाहिए। ऐसे कानून के बनने से कृषि उपज और औद्योगिक उत्पादन दोनों भी साथ साथ बढते जाएंगे। देश के विकास में मददगार बनेंगे। सरकार आज ऐसी ज़मीनें लेना चाहती है। जिसमें सालाना दो या अधिक फसलें ली जाती हैं। यह किसान और कृषि विरोधी है। इससे कृषि उपज घटेगी। कालान्तर में अनाज की समस्या पैदा होगी।

3) मुख्य कानून विभाग 3 धारा J उपधारा I में-
 अ)कम्पनी कानून 1956 के स्थान पर कम्पनी कानून 2013 होगा।
 इ) धारा वाई y के बाद निम्न धारा जोडी जाएगी।
 वाईवाई yy : निजि संस्थान मतलब सरकारी संस्थान अथवा उद्यमके अलावा अन्य कोई भी संस्थान जिनमें एकल संस्थान, साझा संस्थान, कम्पनी, कॉर्पोरेशन, स्वयंसेवी संगठन अथवा प्रचलित कानून के तहत्‌ स्थापित अन्य कोई भी संस्थान समाविष्ट होंगे।
इस बात से स्पष्ट होता है कि, 2013 का कम्पनी कानून लागू कर के सरकार अपने करीबी अधिक से अधिक संस्थानों को अधिग्रहण के दायरे में लाना चाहती है। Public Private Partnership के चलते भविष्य में सरकार इन्हें ऐसे प्रकल्प सौंप देगी जिनके लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं रहेगी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह निर्णय केवल उद्योग जगत व निजि संस्थानों के हित में लिया गया है।


4)     नया अध्याय III-अ को जोडना
 मुख्य कानून में अध्याय 3 के बाद निम्न अध्याय जुडेगा।
अध्याय II व अध्याय III के प्रावधान कुछ विशेष प्रकल्पों को लागू नहीं होंगे।
(विशिष्ट प्रकल्पों को छूट देने का सम्बन्धित सरकारों को अधिकार)
 10अ - सार्वजनीन हितरक्षण हेतु अध्याय II व अध्याय III के प्रावधान लागू करने में से सम्बन्धित सरकार किसी भी प्रकल्प को छूट दे सकती है।

5)     मुख्य कानून धारा 87 के बदले में नई धारा 87
में धारा 87 को बदल कर निम्न धारा आएगी।
इस कानून के तहत्‌ केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार में सेवारत या पूर्व सेवारत किसी व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार का अपराध हुआ हो तो सम्बन्धित सरकार की पूर्व अनुमति मिलने पर ही कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 197 में दिये गये प्रावधानों के अनुसार न्यायालय उस अपराध पर कार्रवाई करेगा।
इस नई धारा 87 के प्रावधान सम्पूर्णतया किसान हित विरोधी हैं यह बात सा़फ ज़ाहिर है।
यदि कोई बाधित किसान केन्द्र अथवा राज्य सरकार के किसी अफसर के खिला़फ अदालत में शिकायत करना चाहता है तो भी सम्बन्धित सरकार की अनुमति के बग़ैर न्यायालय कोई कार्रवाई नहीं कर पाएगा। अब जिसके खिलाफ शिकायत करनी है उसीसे अनुमति लेनी पडे तो यह कैसे सम्भव हो सकता है? अधिग्रहण प्रक्रिया में फैसले का मुख्य अधिकार ज़िलाधीश के अधीन है। उसीकी अनुमति ले पाना शिकायत कर्ता के लिए कैसे सम्भव हो सकता है? यह निर्णय लोकतन्त्र का गला घोंटने वाला सबित होगा।

6)     धारा 101 में संशोधन
 मुख्य कानून धारा 101 में पॉंच वर्ष की कालावधि के बदले निम्न शब्द आएंगे- ‘‘किसी प्रकल्प की स्थापना हेतु निर्धारित अवधि अथवा अधिक तम पॉंच वर्ष इनमें से जो बाद में/ ज़्यादह हो वह।’’

 इस संशोधन से साबित हो रहा है कि, निर्धारित कालावधि के बारे में लाया गया बदलाव किसानों के हित के विरोध में है। कोशिश यह की गई है कि, किसानों की ज़मीनें अधिकाधिक कालावधि के लिए सरकार या उद्यमक्षेत्र के कब्ज़े में रहे। इस लिए सही प्रावधान यही होगा कि, अधिक तमकालावधि की समय सीमा पॉंच वर्ष ही बनी रहे। इस समय सीमा में यदि प्रकल्प स्थापित नहीं हो पाया तो अधिग्रहित ज़मीन मूल मालिक को या उसके वारिसों को अविलम्ब लौटा देनी चाहिए।

7)     धारा 113में संशोधन :
मुख्य कानून धारा 113 उपधारा (1) में
 अ) ‘‘इस विभाग के प्रावधान के बदले ‘‘इस कानून के प्रावधान’’ इन शब्दों का प्रयोग होगा।
 इ) दी गई शर्तों में ‘‘दो वर्ष की कालावधि’’ के बदले ‘‘पॉंच वर्ष की कालावधि’’ इन शब्दों का प्रयोग होगा।
इस संशोधन द्वारा सरकार ने कानून द्वारा प्रदत्त अपने अधिकारों में वृद्धि ही की है। ज़मीन अधिग्रहण को ले कर यदि कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो किसान को अब पॉंच वर्ष तक इन्तज़ार करना पडेगा। इस लिए पॉंच वर्ष के बदले दो वर्ष की कालावधि ही उचित होगी। यह संशोधन भी किसान हित विरोधी ही है।

  यद्यपि सरकार यों कहती है कि यह कानून किसानों की हित में है, तथापि ऊपर उल्लेखित मुद्दों से सा़फ हो जाता है कि, किस तरह इस कानून द्वारा किसानों के प्रति अन्याय हो रहा है। यह अध्यादेश यदि कानून में परिवर्तित हो जाता है तो पूरे देश को अनाज की आपूर्ति करने वाले अन्नदाता किसानों की कई पीढियॉं बरबाद हो जाएंगी। देश के अनाज उत्पादन पर बहुत ही बुरा असर होगा। इस कानून के लागू होने पर किसानों समेत देश की जनता के हर वर्ग में सरकार के प्रति आक्रोश और असन्तोष की आग भडक उठेगी। देश के पर्यावरण पर विपरीत असर पडेगा। पर्यावरण सन्तुलन के बिगडने पर देश के कुछ हिस्सों में अकाल तो कहीं पर असमय वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना किसानों को करना पडेगा। इसलिए देश में भूमिअधिग्रहण कानून के विरोध में चल रहा यह आन्दोलन किसी पार्टी विशेष के खिला़फ न होते हुए केवल किसान, समाज, राज्य व राष्ट्रहित सम्बन्धी समस्या को ले कर चल रहा है। हमने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ‘‘भूमिअर्जन पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रकार व पारदर्शिता अधिकार (संशोधन) विधेयक 2015’’ किस प्रकार किसानों के हित विरोधी है। सरकार से अनुरोध है कि, हमारे प्रतिपादन में यदि कोई त्रुटियॉं हों तो जवाबी ख़त से हमें अवगत कराये, ता कि आन्दोलनकारी अपनी गलती को समझ पाएं। और यदि त्रुटियॉं न हों तो इस विधेयक में उचित संशोधन कर के किसानों की हितरक्षा करने वाला कानून बना दिजीए।


सरकार बार बार कह रहीं है की, भूमिअधिग्रहण अध्यादेश किसानों के हित में है, लेकिन उपरोक्त प्रावधानों को देखते हुए ऐसा लगता है की, यह अध्यादेश साफ तौर पर किसान हित के विरोध में है। इसलिए अध्यादेश का पूरी तरह गम्भीरता से अध्ययन कर के हमने उपरोक्त मुद्दे उठाएं है। ऐसे स्थिती में किसानों के हित के बारे में, सरकार का कहना सच है या हमने उठाएं मुद्दे यह जनता के सामने स्पष्ट होना जरुरी है। इसलिए हमारे इस पत्र के जवाब मे सरकार की राय हमें 25 अप्रील तक मिलने की आशा करते है।
सधन्यवाद,
         
भवदीय,

 कि. बा. उपनाम अण्णा हजारे

3 एप्रिल 2015 रोजी काढलेल्या भूमी अधिग्रहण अध्यादेशामध्ये बदल करण्याची गरज...

प्रति,
मा. नरेंद्र मोदी जी,
पंतप्रधान, भारत सरकार,
साऊथ ब्लॉक, राईसीना हिल,
नई दिल्ली 110011

3 एप्रिल 2015 रोजी काढलेल्या भूमी अधिग्रहण अध्यादेशामध्ये बदल करण्याची गरज...

इंग्रजांनी बनविलेला भूमी अधिग्रहण 1894 चा कायदा बदलून स्वातंत्र्याच्या 68 वर्षानंतर 2013 मध्ये देशातली शेतकऱ्यांच्या प्रदीर्ष संघर्षानंतर त्यावेळच्या सरकारने भूमी अधिग्रहण, पुनर्वसन आणि पुर्नस्थापना मध्ये पारदर्शकता आणि उचीत भरपाईच्या अधिकारा विषयीचा 2013 चा कायदा अस्तीत्वात आणला.  त्या कायद्यात शेतकऱ्यांच्या हिताच्या काही गोष्टींचा विचार करण्यात आला होता. परंतू नवीन सत्तेवर आलेल्या सरकारने 2013 च्या भूमी अधिग्रहण, पुर्नवसन आणि पुर्नस्थापना कायद्यात बदल करुन 31 डिसेंबर 2014 रोजी जो अध्यादेश काढला त्यात 2013 च्या भूमी अधिग्रहण कायद्यातील शेतकऱ्यांच्या हिताच्या असणाऱ्या तरतूंदीमध्ये बदल केला. केलेला बदल शेतकऱ्यांवर अन्याय करणारा असल्यामूळे देशातील अनेक स्वयंसेवी संस्था, शेतकरी संघटना, व इतर शेतकऱ्यांबद्दल आस्था असणाऱ्या विविध संस्था व संघटनांनी आंदोलनाचा पवित्रा घेतला. देशातील सर्व भागामध्ये या बदलाच्या विरोधात आंदोलने सुरु झाली. त्यामुळे सरकारने जनतेला असे आश्वासन दिले कि, हा कायदा शेतकरी विरोधी असेल तर आम्ही यामध्ये सुधारणा करू. आणि 3 एप्रिल 2015 रोजी सरकारने नविन अध्यादेश काढला. नवीन अध्यादेश जो काढला त्यामध्ये दिलेल्या आश्वासनाप्रमाणे शेतकऱ्यांच्या हिताच्या सुधारणा केल्या नाही. तो अध्यादेश शेतकऱ्यांच्या विरोधी असल्याने देशभर सुरु झालेली आंदोलने अद्यापही चालू राहिली आहेत. हा अध्यादेश शेतकऱ्यांच्या हिताचा आहे असं सरकार वेळोवेळी देशातील जनतेला सांगत असल्याने जनतेमध्ये संभ्रम निर्माण झालेला आहे. हा कायदा शेतकऱ्यांच्या हिताचा आहे? की, शेतकऱ्यांच्या विरोधी आहे? याची वस्तुस्थिती आम्ही देशातील जनतेसमोर मांडण्याचा प्रयत्न करत आहोत.
सध्य स्थितीत हा कायदा कसा शेतकरी विरोधी आहे याबाबत सविस्तर माहिती पुढीलप्रमाणे आहे:

1)  अध्यादेशाद्वारे केलेला बदल27 सप्टेंबर 2013 च्या भुमीअधिग्रहण कायद्यामध्ये खाजगी कंपनी (Private Company) असा शब्द आहे त्यामध्ये या सरकारने त्याठिकाणी 3 एप्रिल 2015 च्या अध्यादेशाव्दारे खाजगी संस्था (Private Entity) असा शब्द वापरण्याची तरतूद करून 2013 च्या भुमीअधिग्रहण कायद्यात बदल केला आहे. असा बदल करण्याचा सरकारचा उद्देश काय होता?
शासनाचा हेतू - सरकारने हा केलेला बदल याला कारण म्हणजे खाजगी कंपनी हा शब्द कंपनी अक्ट 1956 च्या कायद्यामध्ये येतो त्यामूळे सरकारला कुठलीही जमीन सरकारला आपल्या मर्जीप्रमाणे कोणत्याही कंपनी किंवा संस्थांना देता येत नाही हे लक्षात आल्यावर आणि सरकारला मोठ्या प्रमाणावर खाजगी संस्थांना जमिनी देण्याची इच्छा असल्याने या सरकारने खाजगी कंपनीच्या ऐवजी खाजगी संस्था (Private Entity) हा शब्द त्याठिकाणी समाविष्ट़ करुन खाजगी संस्थानासुध्दा जमीन अधिग्रहण करुन द्यायचा या सरकारचा हेतू स्पष्ट झालेला आहे. ज्यात प्रामुख्याने एकल संस्था, भागीदारी संस्था, कंपनी, कार्पोरेशन, सेवाभावी संस्था किंवा प्रचलित कायद्यान्वये स्थापित झालेल्या कोणत्याही अन्य संस्थांचा समावेश असु शकतो. वरील संस्थांना 2013 च्या कायद्यामधील खाजगी कंपनी या शब्दामुळे जमीन अधिग्रहण करुन देणे सरकारला शक्य़ नव्हते त्यामुळे सरकारने आपल्या जवळच्या लोकांची सोय करण्याच्या स्वार्थापोटी खाजगी कंपनी ऐवजी खाजगी संस्था हा शब्द त्याठिकाणी वापरुन 2013 च्या भुमीअधिग्रहण कायद्यात बदल केला. 3 एप्रिल 2015 च्या अध्यादेशाव्दारे या सरकारने जर खाजगी संस्था एखादा प्रकल्प उदा. शाळा, महाविद्यालये, हॉटेल्स अशाप्रकारचे इतर कोणतेही उद्योग जर या संस्था उभे करु इच्छित असतील तर याव्दारे अशा उद्योगांना सरकार नवीन तरतूदी प्रंमाणे शेतकऱ्यांची जमीन अधिग्रहण करुन देऊ शकते. त्यामुळे गरिब शेतकऱ्यांची हजारो एकर जमीन अधिग्रहीत होऊ शकते व तो शेतकरी भुमिहीन होऊ शकतो. हा कायदा समाजातील धनदांडग्या व्यक्तींना व त्यांच्या संस्थांना फलदाई ठरणार आहे. असा निर्णय शेतकरी विरोधी आहे. या निर्णयामुळे सरकार आपल्या जवळच्या कार्यकर्त्यांच्या संस्थांची सोय करण्यासाठी तर असा बदल करु इच्छित नाही ना? अन्यथा खाजगी कंपनी (Private Company) ऐवजी खाजगी संस्था (Private Entity) असा बदल करण्याचे कारण काय?

2)  2013 भुमिअधिग्रहण मुख्यकायद्यातील विभाग 2 मधील उपविभाग (2) मध्ये दुसऱ्या तरतुदीनंतर खालील तरतुदींचा समावेश केला आहे. “कलम 10अ मध्ये उल्लेखीत प्रकल्पासाठी आणि त्यातील दिलेल्या उद्दिष्टांसाठी केलेले भूमि अधिग्रहण या उपविभागातील पहिल्या अटीतील तरतुदीनुसार वगळण्यात येईल.”
मुख्य कायदा 2 मधील उपविभाग (1) मध्ये दुसऱ्या तरतुदी नंतर केलेल्या तरतुदींच्या समावेशामुळे 10अ मध्ये उल्लेक केलेल्या प्रकल्पांना शेत मालकांच्या 80 टक्के पुर्वपरवानगीच्या अटीमधून वगळण्यात आले आहे.
      सरकारने अशा केलेल्या बदलांमूळे आता सरकार खाजगी संस्थांना, उद्योगपतींना शेतकऱ्यांच्या परवानगीशिवाय आपल्या मनमर्जी प्रमाणे शेतकऱ्यांच्या जमिनी अधिग्रहण करुन देऊ शकते. या कायद्यामुळे शेतकऱ्यांच्या अधिकारावरच गदा येणार आहे. असा कायदा लोकशाही प्रक्रियेला मारक ठरणार असून शेतकऱ्यांवर अन्याय करणारा आहे.
      शेतकरी वर्षानुवर्षे ज्या जमिनीचा मालक आहे त्यांच्या परवानगीशिवाय त्यांच्या जमिनी जबरदस्तीने घेऊन त्या जमिनी उद्योगपतींना किंवा खाजगी संस्थांना देणे म्हणजे या सरकारची लोकशाही कडून हुकूमशाहीकडे वाटचाल चालली आहे. हे स्पष्टपणे दिसून येते. 10अ मध्ये उल्लेख केलेले प्रकल्पांना मालकांच्या 80 टक्के पुर्वपरवानगीच्या अटी मधून वगळण्यात आले ते प्रकल्प खालील प्रमाणे.
1)  भारत किंवा भारताच्या कुठल्याही भागाच्या संरक्षणासाठी आणि राष्ट्रीय सुरक्षेसाठी महत्वाचे प्रकल्प ज्यात संरक्षणाची तयारी किंवा सामुग्रीच्या उत्पादनाचे प्रकल्प येऊ शकतात.
खाजगी संस्थांना सरक्षणाच्या सामुग्रीच्या उत्पादन प्रकल्पामध्ये सामावून घेतल्यास खाजगी संस्था संरक्षण सामुग्रीचा दुरुपयोग करु शकतात. त्यामुळे देशाच्या अंतर्गत सुरक्षेला धोका निर्माण होण्याची शक्यता नाकारता येत नाही. त्यासाठी सरकार जो भारत किंवा भारताच्या कोणत्याही भागाच्या संरक्षणाचा विचार करत आहे तो साध्य होणे शक्य नाही. फक्त नफा कमविणाऱ्या खाजगी संस्थांना शेतकऱ्यांच्या परवानगीशिवाय जमिन अधिग्रहित करुन देणे शेतकऱ्यांच्या हिताचे नसून शेतकऱ्यांवर अन्याय करणारे आहे.
खाजगी संस्थांना संरक्षणाच्या सामुग्रीच्या उत्पादन प्रकल्पमध्ये समावेश केले तर त्या संस्था आपल्या शत्रु राष्ट्राशी अमीषाला बळू पडून हातमिळवनी करु शकण्याचा धोका आहे. म्हणून ज्या वेळेला आपण अशा  उत्पादनाचा विचार करता त्यावेळी कायद्यामध्ये सर्वसाधारण खाजगी संस्था बाबत पुर्नविचार होणे आवश्यक आहे.
2)  विजपुरवठ्यासह अन्य ग्रामीण भागातील मुलभूत सुविधा प्रकल्प.
-    या कायद्यामध्ये ग्रामीण भागातील मुलभूत सुविधा प्रकल्पांची व्याख्या खुप विस्तीर्ण आहे आपण येथे फक्त मुलभूत सुविधा म्हटले आहे. यामधुन मुलभूत सुविधाची व्याख्याच स्पष्ट़ होत नाही. अशा सुविधा देताना कोणते उद्योग त्यामध्ये येतात याचा तपशिल दिलेला नाही. त्यामूळे फक्त सुविधा प्रकल्पाच्या नावाखाली अनेक उद्योगपती, अनेक खाजगी संस्था आपल्या मनासारखे कुठलेही उद्योग सुरु करतील आणि त्यातून मोठ्या प्रमाणावर शेतकऱ्यांची जमिन अधिग्रहित केली जाईल. त्यामूळे शेतकऱ्यांवर अन्याय होईल.
3)  गरीब जनतेसाठी घरे परवडणारे गृहप्रकल्प-
या कायद्यात परवडणारे गृहप्रकल्प असे म्हटले आहे. याची व्याख्या स्पष्ट होत नाही. अशा गृह प्रकल्पांच्या नावाखाली बांधकाम व्यवसायिक, भू-माफिया लोक मधे येऊन त्याचा गैरफायदा घेऊ शकणार नाहीत याची काय शाश्वती? आज अनेक शहरात अशा घटना घडत आहेत. यातून स्पष्टपणे दिसत आहे की, मोठ्या प्रमाणावर शेतकऱ्याच्या जमिनी विनापरवाना घेऊन बांधकाम व्यावसायिंका देण्याचा सरकारचा हा एक प्रकारचा डाव तर नाही ना? अशा धोरणांमुळे भू-माफिया शेतकऱ्याच्या जमिनी लुटण्यासाठी पुढे आल्याशिवाय राहणार नाहीत. यासाठी सरकारने सखोल अभ्यास करुन पाऊल उचलने गरजेचे आहे.
4)  संबंधीत सरकारे आणि त्यांच्या उद्योग संस्थांनी स्थापन केलेले औद्योगीक विभाग ज्यासाठी निर्धारित रेल्वेमार्ग किंवा रस्त्यांच्या दोन्ही बाजुस 1 कि.मी. पर्यंतची जागा ताब्यात घेतली जाईल.
या कायद्यतील केलेला हा बदल देशाच्या पर्यावरणाच्या दृष्टीने व लोकशाहीच्या दृष्टीने धोक्याचा आहे. आपल्या देशात अंदाजित 62,000 कि.मी. रेल्वेमार्ग आहे. 92,000 कि.मी. राष्ट्रीय महामार्ग आहेत. 1,32,000 कि.मी. राज्य मार्ग आहेत. त्यामूळे किती लाख एकर जमिन अधिग्रहित केली जाणार आहे याचा अंदाज घेणे अवघड आहे.
स्वातंत्र्यानंतर आजपर्यंत दुतर्फा वृक्ष लागवड केलेली आहे. राष्ट्रीय महामार्गाच्या दोन्ही बाजूला कोट्यवधी रुपये खर्च करुन वृक्ष वाढविले आहेत. या निर्णयामुळे ही सर्व वृक्ष तोडली जाणार आहेत. हे वृक्ष तुटली तर ही बाब पर्यावरणाच्या दृष्टीने धोक्याची आहे. एका बाजूला आपण औद्योगिक क्षेत्र वाढवत आहोत ते वाढल्यामूळे रोज लाखो टन पेट्रोल, डिझेल, रॉकेल, कोळसा यासारखे इंधन जाळत आहोत त्यातून निर्माण होणाऱ्या कार्बन डायऑक्साईड मुळे माणसांचे आजार वाढत आहेत. पर्यावरणाचा ऱ्हास होत आहे व तापमान दिवसेंदिवस वाढत आहे त्यामूळे पर्यावरणाचा समतोल ढासळत आहे. अशा अवस्थेत रस्त्याच्या दुतर्फा लावलेली लाखो झाडे तोडने हे चुकीचे आहे. आज लाखो एकर जमीन शेतकऱ्यांची परवानगी न घेता अधिग्रहित केली जाणार आहे हे लोकशाही विरोधी आहे. याचा अर्थ असा होतो की हे सरकार शेतकऱ्याच्या हिताचे नाही. ते फक्त उद्योगपतींचा आणि आपल्या जवळच्या विविध संस्थांचा विचार करते.
5)  खाजगी-सरकारी भागीदारीच्या प्रकल्पासह सर्व मुलभूत सुविधा प्रकल्प आणि सामाजिक सुविधा प्रकल्प ज्यात जमिनीची मालकी सरकारकडेच राहते -
   परंतू अधिसुचना जारी करण्याआधी अशा प्रकल्पांसाठी संबंधीत सरकारने किमान आवश्यक जागा लक्षात घेऊनच भूमी अधिग्रहणाची व्याप्ती निश्चित केली पाहिजे. संबंधीत सरकारने नापिक जमीन, ओसाड जमीन इ. चे नियमाप्रमाणे सर्वेक्षण करुन नोंद करणे.
या कायद्यातील केलेला दल अस्पष्ट़च आहे. त्यात खाजगी-सरकारी, भागीदारी प्रकल्प म्हणजे कोणते प्रकल्प़ हे स्पष्ट़ होत नाही. मुलभूत सुविधा प्रकल्प म्हणजे कोणते मुलभूत सुविधा प्रकल्प हे स्पष्ट़ होत नाही. तसेच सामाजिक सुविधा प्रकल्पामध्ये कोणत्या प्रकल्पाचा समावेश होतो हे ही स्पष्ट़ नाही. म्हणून अशा प्रकारच्या प्रकल्पासाठी त्यांची कसलीही व्याख्या स्पष्ट़ करता अशा प्रकल्पांना सामाजिक प्रभाव मुल्यमापनाच्या अभ्यासातुनही वगळून शेतकऱ्यांची जमीन अधिग्रहण करणे हे पूर्णत: शेतकरी विरोधी आहे. ज्या वेळी कुठलाही कायदा होतो त्या कायद्यामध्ये प्रत्येक गोष्ट ही स्पष्ट असायला हवी. कायद्यामध्ये स्पष्टीकरण नसेल तर प्रत्येक जण आप-आपल्या परिने त्याचा अर्थ लावतील आणि शेतकऱ्यांवर त्याचा खराब प्रभाव पडेल. म्हणून या प्रत्येक गोष्टीचे सरकारने स्पष्टीकरण करने आवश्यक आहे. खाजगी संस्थांना व उद्योगपतींना शेतकऱ्यांच्या परवानगीशिवाय वरील प्रकल्पासाठी सरकार जमिन अधिग्रहण करुन देऊ शकते. या कायद्यामुळे शेतकऱ्याच्या अधिकार स्वातंत्र्यावरच गदा येत आहे. लोकशाही प्रक्रियेला ते मारक आहे. या कायद्यात शेतकऱ्याचे हित कुठे आहे हे समजत नाही. ज्या वेळी सरकार म्हणते हा कायदा शेतकऱ्याच्या हिताचा आहे तर त्याचे स्पष्टीकरण सरकारने द्यावे. सरकारने आणखीही असे म्हटले आहे की, नापीक जमिन व ओसाड जमिन इ. चे नियमाप्रमाणे सर्वेक्षण करुन नोंद करणे ही एक प्रकारची जनतेची दिशाभूल आहे. हे सर्व कशासाठी?
म्हणून देशातील जनतेची व आमची मागणी होती की, देशातील एकुण जमिनीचा सर्वे करावा व त्याचे क्लास 1/2/3/4/5/6 ग्रेड बनवावे. क्लास 1/2/3/4 ही जमिन औद्योगिक क्षेत्राला दिली जाणार नाही व क्लास 5/6 ची जमिन औद्योगिक क्षेत्रास दिली जाईल असा कायदा करणे आवश्यक आहे. जेणे करुन कृषी उत्पादन वाढेल व औद्योगिक उत्पादनही वाढेल आणि या देशाच्या विकासाला मदत होईल. दोन पेक्षा जास्त पिके (बहुपिके) ज्या जमिनीत निघतात अशा जमिनी सरकार घेण्याचा जो प्रयत्न करत आहे ते शेतकऱ्यांच्या विरोधी आहे. त्यामूळे देशातील कृषी उत्पादन घटेल. आज नव्हे तर कालांतराने अन्न-धान्याच्या समस्येला सामोरे जावे लागेल. हे नाकारता येत नाही.

3)  मुख्यं कायद्यातील विभाग 3 कलम j पोटकलम i मध्ये
अ)   कंपनी कायदा 1956” हे शब्द आकडे बदलूनकंपनी कायदा 2013” हे शब्द आकडे घातले जातील.
ब)    कलम (वाय-y) नंतर खालील कलम घातले जाईल.
“(वाय-yy) खाजगी संस्था म्हणजे सरकारी संस्था किंवा उद्योग सोडून कुठलीही अन्य संस्था ज्यामध्ये एकल संस्था, भागीदारी संस्था, कंपनी, कार्पोरेशन, सेवाभावी संस्था किंवा प्रचलित कायद्यान्वये स्थापित झालेली कुठलीही अन्य संस्थांचा यात समावेश असु शकतो.
मुख्यं कायद्यातील विभाग 3 मध्ये, कलम (j) पोटकलम (i) मध्ये कंपनी कायदा 1956 हे शब्द आणि आकडे बदलून कंपनी कायदा 2013 हे शब्द व आकडे घालणे व कलम (वाय-y) नंतर खालील कलमांचा समावेश करणे.
“(वाय-yy) खाजगी संस्था म्हणजे सरकारी संस्था किंवा उद्योग सोडून कुठलीही अन्य संस्था ज्यामध्ये एकल संस्था, भागीदारी संस्था, कंपनी, कार्पोरेशन, सेवाभावी संस्था किंवा प्रचलित कायद्यान्वये स्थापित झालेली कुठलीही अन्य संस्थांचा यात समावेश असु शकतो.”
यातून असे स्पष्ट होते की, 2013 चा कंपनी कायदा लागू करुन सरकार अधिग्रहणाच्या प्रंक्रियेत जास्तीत जास्तं आपल्या जवळच्या संस्थांना समाविष्टं करु इच्छिते. Public private partnership मध्ये सरकार यांना भविष्यात विनापरवानगी प्रकल्प देऊ शकते. यातून असे स्पष्ट होते की, हा निर्णंय उद्योग क्षेत्राच्या खाजगी संस्थांच्या हितासाठी घेतला गेला आहे.

4) नवीन प्रकरण III-अ जोडणे
मुख्यं कायद्यामध्ये प्रकरण III नंतर खालील प्रकरण जोडले जाईल.
प्रकरण III-
प्रकरण II व प्रमाण III मधील तरतुदी कांही विशिष्टं प्रकल्पांना लागू होणार नाहीत.
(संबंधीत सरकारला विशिष्टं प्रकल्प वगळण्याचा अधिकार)
10सार्वजनिक हिताच्या दृष्टीने संबंधित सरकार या कायद्याच्या प्रकरण II III मधील तरतुदी लागु करण्यातून खालीलपैकी कुठलेही प्रकल्प वगळु शकते:

5) विभाग 87 ऐवजी नविन विभाग 87:
मुख्य कायद्यात विभाग 87 खालील प्रमाणे बदलला जाईल:
87. जर या कायद्यानुसार अशा प्रकारचा गुन्हा घडतेवेळी केंद्र सरकार किंवा राज्य सरकारमध्ये नोकरीला असलेल्या अथवा पुर्वी नोकरीला असलेल्या व्यक्तीकडून असा गुन्हा झाला असेल तर, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर च्या कलम 197 मध्ये दिलेल्या तरतुदीनुसार संबंधीत सरकारची पुर्वसंमती असेल तरच कोर्ट अशा गुन्ह्यांची दखल घेईल.
      मुख्य कायद्यात विभाग 87 ऐवजी नविन विभाग 87 जो जोडलेला आहे हा विभाग व त्यातील तरतूद ही पूर्ण़पणे शेतकऱ्यांच्या विरोधात असल्याचे दिसून येते.
जर एखाद्या बाधित शेतकऱ्यास केंद्र सरकार किंवा राज्य सरकारमध्ये नोकरीला असलेल्या अथवा पुर्वी नोकरीला असलेल्या व्यक्तीबाबत तक्रार नोंदवायची असल्यास संबंधीत शासनाच्या परवानगीशिवाय न्यायालयाला तशा तक्रारीची दखल घेता येणार नाही. ज्याच्या विरोधात तक्रार नोंदवायची आहे त्याच्याच परवानगीने ही तक्रार नोंदविणे कशे शक्य़ आहे? अधिग्रहण प्रक्रियेमध्ये जिल्हाधिकारी हा प्रमुख निर्णय अधिकारी आहे त्याच्याच विरोधात संबंधीत तक्रारकर्ता न्यायालयात कशी तक्रार करु शकेल? हा निर्णय म्हणजे लोकशाहीची गळचेपी आहे.   

6)  विभाग 101 मधील सुधारणा :
मुख्य कायद्यात कलम 101 मध्येपाच वर्षाचा कालावधीऐवजी खालील शब्द घालावेतकुठल्याही प्रकल्प स्थापनेसाठी निर्धारीत केलेला कालावधी किंवा जास्तीत जास्त पाच वर्षेयातील नंतरचा / जास्तीचा जो असेल तो.
मुख्य कायद्यात कलम 101 मध्येपाच वर्षाचा कालावधीऐवजीकुठल्याही प्रकल्प स्थापनेसाठी निर्धारीत केलेला कालावधी किंवा जास्तीत जास्त पाच वर्षेहे वापरण्यात आले आहे.
यातून असे निर्देशित होते की, निर्धारित केलेला कालावधी बाबतचा बदल हा शेतकरी विरोधी आहे. तसेच शेतकऱ्यांच्या जमिनी या जास्तीतजास्त़ कालावधीसाठी शासनाकडे / उद्योगक्षेत्राकडे कशा राहील याची काळजी घेतलेली आहे. त्यामुळे हा कालावधी पाच वर्षेच असला पाहिजे. सदर कालावधीत प्रकल्प़ स्थापित झाल्यास सदर अधिग्रहीत जमीन संबंधीत जमीन मालकास किंवा त्याच्या वारसदारास तात्काळ परत केली जावी.

7)  कलम 113 मधील सुधारणा :
मुख्य कायदा कलम 113 उपकलम (1) मध्ये
अ) ह्या भागातील तरतुदीहे शब्द काढून तिथेह्या कायद्यातील तरतुदीहे शब्द  घालावेत.
ब) दिलेल्या अटीमध्येदोन वर्षाचा कालावधीऐवजीपाच वर्षाचा कालावधीहे शब्द घालावेत.
ह्या भागातील तरतुदीऐवजीह्या कायद्यातील तरतुदीहे शब्द वापरुन शासनाने या कायद्यातील त्यांच्याकडे असलेल्या अधिकारात वाढच केलेली आहे. समजा जमीन अधिग्रहणामध्ये जर काही वाद निर्माण झाला तर शेतकऱ्यास पाच वर्ष़ वाट पहावी लागेल त्यामुळे पाच वर्षाऐवजी दोन वर्षाचाच कालावधीच योग्य़़ आहे म्ह़णून हा बदलसुध्दा शेतकरी विरोधातीलच असल्याचे दिसून येते.
एका बाजुला सरकार जरी असे म्हणत असेल हा कायदा शेतकऱ्यांच्या हिताचा आहे पण वरील उदाहरणांवरुन हे लक्षात येते की हा कायदा कसा शेतकऱ्यांवर अन्याय करणारा आहे. या अध्यादेशाचे जर कायद्यात रुपांतर झाले तर देशातील अन्नदात्या शेतकऱ्यांचे पिढ्या पिढ्याचे नुकसान होईल. त्याचबरोबर देशातील अन्नधान्य उत्पादनावर फार मोठ्या प्रमावर परिणाम होईल. असा कायदा लागू झाला तर देशातील शेतकऱ्यांसहीत सर्व जनतेमध्ये सरकारच्या विरोधा असंतोष निर्माण होईल. देशाच्या पर्यावरणावर घातक परिणाम होईल. पर्यावरणाचे संतूलन ढासळल्यामुळे देशात काही भागात दुष्काळ काही भागात अवकाळी पाऊस यासारख्या घटनांना शेतकऱ्यांना सामोरे जावे लागेल. म्हणून आज देशात भूमी अधिग्रहण कायद्याच्या विरोधात सुरु असलेले आंदोलने हे कुठल्याही पक्ष पार्टी व्यक्ती च्या विरोधात नसून शेतकरी, समाज, राज्य, राष्ट्रहिताच्या प्रश्नासाठी हे आंदोलन चालू असल्याने सरकारला विनंती आहे की भूमी अर्जन पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन मध्ये उचित प्रकार आणि पारदर्शिका अधिकार (संशोधन) विधेयक 2015 हे शेतकऱ्यांसाठी कशे अन्याय कारक आहे. हे सांगण्याचा आम्ही प्रयत्न केला आहे. आमच्या लिहण्यामध्ये काही उणिवा असतील तर आपण आम्हाला उलट टपाली पत्र पाठवून कळवावे. जेणे करुन आंदोलकांची चुक कळू शकेल. उणिवा नसतील तर सरकारने या विधेयकामध्ये बदल करुन शेतकऱ्यांच्या हिताचे विधेयक आणावे ही विनंती.
सरकार वेळोवेळी म्हणत आहे की, भूमी अधिग्रहण अधिनियम शेतकऱ्यांच्या हिताचा आहे. पण वरील तरतुदी पाहिल्यानंतर असे वाटत आहे की, हा अधिनियम पुर्णपणे शेतकऱ्यांच्या हिताच्या विरोधात आहे. त्यामूळे या अधिनियमाचा पुर्णपणे गंभीरतापूर्वक अभ्यास करुन वरील मुद्दे उपस्थित केले आहेत. या परिस्थितीत शेतकऱ्यांच्या हिताबाबत सरकारचे म्हणणे खरे आहे की, आम्ही उपस्मुथित केलेले मुद्दे हे जनतेच्या समोर स्पष्ट हेणे जरुरी आहे. त्यामूळे या पत्राचे उत्तर व सरकारचे मत आम्हाला 25 एप्रिल पर्यंत मिळण्याची अपेक्षा आहे.
धन्यवाद.
    आपला,


                 कि. बा. तथा अण्णा हजारे