Wednesday 22 April 2015

3 अप्रैल 2015 के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में बदलाव जरुरी...

प्रति,
मा. नरेंद्र मोदी जी,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
साऊथ ब्लॉक, राईसीना हिल,
नई दिल्ली - 110011.

 देश भर के किसानों के प्रदीर्घ संघर्ष के बाद, अंग्रेज़ सरकार के सन्‌ 1894 बनाये हुए भूमिअधिग्रहण कानून को बदल कर, स्वाधीनता के 68 वर्षों बाद, सन्‌ 2013 में भूमिअधिग्रहण, पुनर्वास व पुनर्स्थापन में पारदर्शिता व उचित मुआवजे के अधिकार का नया कानून विगत सरकार को बनाना पडा। उक्त कानून की कुछ मुद्दे किसान हित के पक्ष में थे। नई सरकार ने सत्तासीन होने पर इस कानून में बदलाव हेतु 31 दिसम्बर 2014 को अध्यादेश जारी किया, जिसमें किसान हित के कई सारे मुद्दे में बदल हुआ है। इन बदलावों के किसानों पर अन्यायमूलक होने के कारण देश के कई स्वयं सेवी संगठन, किसान संगठन व किसान हित की सोच रखने वाले अनेक विध संस्थान व संगठनों ने विरोध प्रदर्शित किया। देश के कई भागों में आंदोलन शुरु हुए। सरकार को यह आश्वासन देना पडा कि अगर यह कानून किसान विरोधी है तो हमउसमें उचित संशोधन करेंगे। फिर 3 अप्रैल 2015 को सरकार द्वारा नया अध्यादेश जारी हुआ। पर उसमें भी आश्वासन के मुताबिक किसान हित के पक्ष में कोई संशोधन नहीं हुआ। इसलिए विरोधी आन्दोलन भी थमने का नामनहीं ले रहे। यह अध्यादेश किसान हित के पक्ष में है ऐसा बार बार सरकार द्वारा बताया जा रहा है और जनता को भ्रमित किया जा रहा है। अब देश की जनता के सामने हमने यही बात यथा-तथ्य रखने की कोशिश की है कि ये किसान हित में है या किसान विरोधी है।

1)     अध्यादेश द्वारा किये गये बदलाव : 27 सितम्बर 2013 के कानून में प्रयुक्त निजि कम्पनी (Private Company) शब्द प्रयोग स्थान पर निजि संस्थान (Private Entity) शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस बदलाव के करने के पीछे सरकार की मंशा क्या है?
 सरकार के इरादे : निजि कम्पनी शब्द प्रयोग के कारण कम्पनी एक्ट 1956 के अधीन रहते सरकार अपनी मर्ज़ी के संस्थानों को ज़मीन आबंटित नहीं कर पाती थी, और चूं कि सम्भवत: सरकार का इरादा वैसा था, इस लिए यह बदलाव लाया गया। एकल संस्थान, साझा (भागीदारी) संस्थान, कम्पनी, कॉर्पोरेशन, स्वयंसेवी संगठन या कानूनन संस्थापित किसी भी संस्थान को भूमिआबंटित करना अब सम्भव है जो कि पहले नहीं हो पाता था। हो सकता है कि, सरकार के करीबी लोगों को लाभ मिले इस हेतु से यह बदलाव लाया गया है। अब कोई निजि संस्थान किसी प्रकल्प: स्कूल, कॉलेज, होटल आदि बनाना चाहे तो नये अध्यादेश के तहत्‌ किसानों की ज़मीन अधिग्रहित कर इन संस्थानों के लिए सरकार उपलब्ध करा सकती है। परिणामी गरीब किसानों की हज़ारों एकड ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है और उन्हें भूमिहीन बनाया जा सकता है। इसका लाभ समाज के धन सम्पन्न वर्ग के संस्थानों को ही मिलने वाला है। यह किसान हित के विरोधी तो है ही। क्या सरकार का यही इरादा है कि, अपने करीबी लोगों को इसका लाभ मिले? इसके सिवा अन्य क्या कारण हो सकता है, जो निजि कम्पनी के स्थान पर निजि संस्थान को लाना पडे?

2)                 सन्‌ 2013 भूमिअधिग्रहण मुख्य कानून के विभाग 2 का उपविभाग 2 में अन्य प्रावधान के पश्चात्‌ निम्न प्रावधानों का समावेश किया गया है। खण्ड 10अ में उल्लेखित प्रकल्प तथा उस में दिए उद्दिष्टों के लिए किये गये भूमिअधिग्रहण को इस उपविभाग की शर्त 1 के प्रावधान अनुसार छूट मिलेगी। मुख्य कानून 2 का उपविभाग 1 में अन्य प्रावधानों के पश्चात्‌ किए गये प्रावधानों के समावेश के कारण 10अ में उल्लेखित प्रकल्पों को 80 प्रतिशत ज़मीन मालिकों की पूर्व सम्मति की शर्त में से छूट मिल गई है।
 सरकार के किये इन बदलावों के चलते अब निजि संस्थान व उद्योजकों के वास्ते अपनी मर्ज़ी के मुताबिक किसानों की ज़मीन अधिग्रहित करना सरकार के लिए सम्भव हो गया है। इसका सीधा असर यों होगा कि, किसान अपने मूलभूत अधिकारों से हाथ धो बैठेगा। जनतन्त्र विरोधी यह कानून किसानों पर अन्याय मूलक है। सालों साल जो उस ज़मीन के स्वामी रहे हैं, उनकी ज़मीन उनकी अनुमति के बगैर छीन कर उद्योजकों या निजि संस्थानों को मुहैया करवाने की कृति सा़फ दर्शाती है कि, सरकार के क़दमअब बजाय जनतन्त्र के, तानाशाही की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।
अ)  भारत अथवा देश के किसी हिस्से की रक्षा हेतु या राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु आवश्यक प्रकल्प जिनमें संरक्षण सिद्धता व रक्षा सामग्री उत्पादन प्रकल्प का समावेश हो।
निजि संस्थानों का समावेश रक्षा सामग्री उत्पादन प्रकल्पों में करने पर रक्षा सामग्री के दुरुपयोग होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। इस कारण देश की अन्तर्गत सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है। इसे देश अथवा देश के किसी हिस्से की सुरक्षा का ख़याल कहना आत्मवंचना ही होगी। केवल मुना़फा खोरी करने वाले निजि संस्थानों को किसानों की ज़मीन उनकी अनुमति के बग़ैर मुहैया करवाने की कृति किसानों के हित में कतई नहीं है, उन पर अन्याय कारी है। रक्षा सामग्री उत्पादन में संलग्न निजि संस्थानों को देश के शत्रु राष्ट्र कई प्रलोभनों में उलझाने की कोशिशें भी कर सकते है। क्या ये निजि संस्थान उन  प्रलोभनों से ख़ुद को बचा पाएंगे? कहीं दुश्मनों से सॉंठ-गॉंठ कर बैठे तो? हमें लगता है कि इस विषय में गम्भीरता पूर्वक पुनर्विचार करना ज़रूरी है।

इ)    बिजली सप्लाई से ले कर अन्य ग्रामीण इलाके में मूलभूत सुविधा के अन्य प्रकल्प। इस कानून के तहत्‌ ग्रामीण विभागों में मूलभूत सुविधा प्रकल्पों की व्याख्या बडी लम्बी चौडी की गई है। मगर उस में स्पष्टता का अभाव है। ब्यौरे के अभाव में सुविधा प्रकल्प का नामले कर कोई उद्योजक, कोई निजि संस्थान अपने मन मा़िफक कोई भी उद्योग वहॉं पर ला सकेंगे और फलस्वरूप बडे पैमाने पर किसानों की भूमि अधिग्रहित होगी, इस में नुकसान किसानों का ही होगा।

ई)    गरीब जनता को घर तथा वाज़िब (कम) दामवाले गृह प्रकल्प। यहॉं पर भी वाज़िब मूल्य की व्याख्या में स्पष्टता का अभाव है। कैसे भरोसा करें कि इन गृह प्रकल्पों का सोंग ओढ कर गृह निर्माण व्यवसायी तथा भू-माफिया इसमें घुसपैठ नहीं कर पाएंगे? कई शहरों में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं, और हो भी रही हैं। इस पर से ज़ाहिर तो यही हो रहा है कि, सरकार भी यही चाहती है कि किसानों की ज़मीनें बडे पैमाने पर बग़ैर अनुमति के अधिग्रहित की जाएं और गृह निर्माण व्यवसायियों को दी जाएं। किसानों की ज़मीन की लूट करने हेतु भू-माफिया इन नितियों का लाभ उठा सरके है। ज़रूरी है कि सरकार इन स्थितियों का गहन अध्ययन करें और सही दिशा में क़दमउठाएं।

उ)     सम्बन्धित सरकारें व उनके उद्यमसंस्थानों द्वारा स्थापित उद्यमविभाग जिनके लिए रेल मार्ग अथवा सडक के दोनों तरफ की 1 किमी ज़मीन का अधिग्रहण किया जाएगा। कानून में किया गया यह प्रावधान देश के पर्यावरण तथा लोक तन्त्र की दृष्टि से गम्भीर चिन्ताजनक है। हमारे देश में करीब 62,000 किमी रेल मार्ग, 92,000 किमी लम्बे राष्ट्रीय महामार्ग, तथा 132,000 किमी लम्बाई के राज्य महामार्ग हैं। कितने लाख एकड ज़मीन का अधिग्रहण होगा इसका अन्दाज़ा लगा पाना मुश्किल ही है।
 सडकों के दोनों तऱफ वृक्षों की कतारें हैं। बडे परिश्रमपूर्वक करोडों रुपयों की लागत से इन वृक्षों का संवर्धन हुआ है। इस निर्णय की चपेट में ये सभी वृक्ष आ गये हैं। अगर ये वृक्ष कट जाते हैं तो पर्यावरण की असीमित हानि होगी। औद्योगिक इकाइयों के बढते जाने से एक तऱफ रोज़ाना लाखों टन कोयला, डीज़ल, पेट्रोल, रॉकेल आदि इन्धन जलाये जाते हैं। उनमें से निकलने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड की बढती मात्रा से बीमारियॉं बढ रही हैं, पर्यावरण की हानि हो रही है, तापमान बढता जा रहा है। दिन-ब-दिन पर्यावरण का सन्तुलन बिगड रहा है। ऐसी स्थिती में सडकों के दो-तऱफा लगे वृक्षों का कटना बडा ही दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगा। पर्यावरण की हानि के प्रति बे़िफक्र रवैया, बग़ैर किसानों की अनुमति के उनकी लाखों एकड ज़मीन का अधिग्रहण केवल इसी बात का संकेत करता है कि इस सरकार को न तो लोक तन्त्र की परवाह है न ही किसानों के हित का ख़याल, उनके दिल में ख़याल होगा तो सिर्फ उद्योजकों का, अपने करीबी लोगों के विविध संस्थानों का।


ए) निजि-सरकारी साझा प्रकल्पों सहित सभी मूलभूत सुविधा प्रकल्प व सामाजिक सुविधा प्रकल्प जिनमें ज़मीन पर सरकार का स्वामित्व बना रहता है। यह तो ठीक ही है कि सरकार का स्वामित्व बना रहेगा, फिर भी ज़रूरी है कि अधिसूचना जारी होने के पूर्व, ऐसे प्रकल्प के लिए आवश्यक न्यूनतमज़मीन के मद्देनज़र सम्बन्धित सरकार भूमिअधिग्रहण की व्याप्ति सुनिश्चित करे। उसमें भी कानून के तहत सर्वेक्षण करवा कर अनुपजाऊ बंजर ज़मीन का ही अधिग्रहण करे। इस बदल में भी स्पष्टता का अभाव ही है। निजि-सरकारी साझा प्रकल्प के माने कौन से प्रकल्प इस बारे में भी स्पष्टता नहीं है। वही बात है मूलभूत सुविधा प्रकल्पों की या सामाजिक सुविधा प्रकल्पों की। स्पष्टता के अभाव में ऐसे प्रकल्पों को सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन में से भी छूट देने की बात सर-असर किसान हित के विरोध में है। कानून जब बनता है तो उस कानून की हर बाबत में स्पष्टता का होना निहायत ज़रूरी है। अगर नहीं होगी तो अपने अपने हित के परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ निकालने को हर किसी को स्वतन्त्रता होगी, और इसमें ठगा जाएगा केवल बेबस किसान। इस लिए ज़रूरी है कि सरकार हर बाबत को स्पष्ट करे। किसानों की ज़मीन बग़ैर उनकी अनुमति के निजि संस्थान तथा उद्योजकों को उपलब्ध करवाने से किसानों के मूलभूत अधिकार स्वातन्त्र्य पर ही आँच आ रही है। यह लोकतन्त्र के विरोधी है। कुछ समझ नहीं आता जब सरकार कहती है कि इस कानून में किसानों के हित की रक्षा की गई है। अगर ऐसा है तो सरकार इसे स्पष्ट करे। सरकार का कहना यूं भी है कि अनुपजाऊ ज़मीन तथा बंजर ज़मीन का सर्वेक्षण करा कर रिकार्ड कराने में जनता को भ्रमित किया जाता रहा है। क्या है इसका मतलब? किस लिए यह सब हो रहा है?

 देश की जनता और हमभी इसी लिए मॉंग करते हैं कि देश भर की कुल ज़मीन का सर्वेक्षण करना चाहिए। उनकी स्तर के अनुसार उन्हें क्लास 1 से 6 तक प्रमाणित करें। क्लास 1 से 4 तक की ज़मीनें उद्यमक्षेत्र को नहीं देनी चाहिए। क्लास 5 6 की ज़मीनें उद्यमक्षेत्र को उपलब्ध कराने का कानून बनाया जाना चाहिए। ऐसे कानून के बनने से कृषि उपज और औद्योगिक उत्पादन दोनों भी साथ साथ बढते जाएंगे। देश के विकास में मददगार बनेंगे। सरकार आज ऐसी ज़मीनें लेना चाहती है। जिसमें सालाना दो या अधिक फसलें ली जाती हैं। यह किसान और कृषि विरोधी है। इससे कृषि उपज घटेगी। कालान्तर में अनाज की समस्या पैदा होगी।

3) मुख्य कानून विभाग 3 धारा J उपधारा I में-
 अ)कम्पनी कानून 1956 के स्थान पर कम्पनी कानून 2013 होगा।
 इ) धारा वाई y के बाद निम्न धारा जोडी जाएगी।
 वाईवाई yy : निजि संस्थान मतलब सरकारी संस्थान अथवा उद्यमके अलावा अन्य कोई भी संस्थान जिनमें एकल संस्थान, साझा संस्थान, कम्पनी, कॉर्पोरेशन, स्वयंसेवी संगठन अथवा प्रचलित कानून के तहत्‌ स्थापित अन्य कोई भी संस्थान समाविष्ट होंगे।
इस बात से स्पष्ट होता है कि, 2013 का कम्पनी कानून लागू कर के सरकार अपने करीबी अधिक से अधिक संस्थानों को अधिग्रहण के दायरे में लाना चाहती है। Public Private Partnership के चलते भविष्य में सरकार इन्हें ऐसे प्रकल्प सौंप देगी जिनके लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं रहेगी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह निर्णय केवल उद्योग जगत व निजि संस्थानों के हित में लिया गया है।


4)     नया अध्याय III-अ को जोडना
 मुख्य कानून में अध्याय 3 के बाद निम्न अध्याय जुडेगा।
अध्याय II व अध्याय III के प्रावधान कुछ विशेष प्रकल्पों को लागू नहीं होंगे।
(विशिष्ट प्रकल्पों को छूट देने का सम्बन्धित सरकारों को अधिकार)
 10अ - सार्वजनीन हितरक्षण हेतु अध्याय II व अध्याय III के प्रावधान लागू करने में से सम्बन्धित सरकार किसी भी प्रकल्प को छूट दे सकती है।

5)     मुख्य कानून धारा 87 के बदले में नई धारा 87
में धारा 87 को बदल कर निम्न धारा आएगी।
इस कानून के तहत्‌ केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार में सेवारत या पूर्व सेवारत किसी व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार का अपराध हुआ हो तो सम्बन्धित सरकार की पूर्व अनुमति मिलने पर ही कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 197 में दिये गये प्रावधानों के अनुसार न्यायालय उस अपराध पर कार्रवाई करेगा।
इस नई धारा 87 के प्रावधान सम्पूर्णतया किसान हित विरोधी हैं यह बात सा़फ ज़ाहिर है।
यदि कोई बाधित किसान केन्द्र अथवा राज्य सरकार के किसी अफसर के खिला़फ अदालत में शिकायत करना चाहता है तो भी सम्बन्धित सरकार की अनुमति के बग़ैर न्यायालय कोई कार्रवाई नहीं कर पाएगा। अब जिसके खिलाफ शिकायत करनी है उसीसे अनुमति लेनी पडे तो यह कैसे सम्भव हो सकता है? अधिग्रहण प्रक्रिया में फैसले का मुख्य अधिकार ज़िलाधीश के अधीन है। उसीकी अनुमति ले पाना शिकायत कर्ता के लिए कैसे सम्भव हो सकता है? यह निर्णय लोकतन्त्र का गला घोंटने वाला सबित होगा।

6)     धारा 101 में संशोधन
 मुख्य कानून धारा 101 में पॉंच वर्ष की कालावधि के बदले निम्न शब्द आएंगे- ‘‘किसी प्रकल्प की स्थापना हेतु निर्धारित अवधि अथवा अधिक तम पॉंच वर्ष इनमें से जो बाद में/ ज़्यादह हो वह।’’

 इस संशोधन से साबित हो रहा है कि, निर्धारित कालावधि के बारे में लाया गया बदलाव किसानों के हित के विरोध में है। कोशिश यह की गई है कि, किसानों की ज़मीनें अधिकाधिक कालावधि के लिए सरकार या उद्यमक्षेत्र के कब्ज़े में रहे। इस लिए सही प्रावधान यही होगा कि, अधिक तमकालावधि की समय सीमा पॉंच वर्ष ही बनी रहे। इस समय सीमा में यदि प्रकल्प स्थापित नहीं हो पाया तो अधिग्रहित ज़मीन मूल मालिक को या उसके वारिसों को अविलम्ब लौटा देनी चाहिए।

7)     धारा 113में संशोधन :
मुख्य कानून धारा 113 उपधारा (1) में
 अ) ‘‘इस विभाग के प्रावधान के बदले ‘‘इस कानून के प्रावधान’’ इन शब्दों का प्रयोग होगा।
 इ) दी गई शर्तों में ‘‘दो वर्ष की कालावधि’’ के बदले ‘‘पॉंच वर्ष की कालावधि’’ इन शब्दों का प्रयोग होगा।
इस संशोधन द्वारा सरकार ने कानून द्वारा प्रदत्त अपने अधिकारों में वृद्धि ही की है। ज़मीन अधिग्रहण को ले कर यदि कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो किसान को अब पॉंच वर्ष तक इन्तज़ार करना पडेगा। इस लिए पॉंच वर्ष के बदले दो वर्ष की कालावधि ही उचित होगी। यह संशोधन भी किसान हित विरोधी ही है।

  यद्यपि सरकार यों कहती है कि यह कानून किसानों की हित में है, तथापि ऊपर उल्लेखित मुद्दों से सा़फ हो जाता है कि, किस तरह इस कानून द्वारा किसानों के प्रति अन्याय हो रहा है। यह अध्यादेश यदि कानून में परिवर्तित हो जाता है तो पूरे देश को अनाज की आपूर्ति करने वाले अन्नदाता किसानों की कई पीढियॉं बरबाद हो जाएंगी। देश के अनाज उत्पादन पर बहुत ही बुरा असर होगा। इस कानून के लागू होने पर किसानों समेत देश की जनता के हर वर्ग में सरकार के प्रति आक्रोश और असन्तोष की आग भडक उठेगी। देश के पर्यावरण पर विपरीत असर पडेगा। पर्यावरण सन्तुलन के बिगडने पर देश के कुछ हिस्सों में अकाल तो कहीं पर असमय वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना किसानों को करना पडेगा। इसलिए देश में भूमिअधिग्रहण कानून के विरोध में चल रहा यह आन्दोलन किसी पार्टी विशेष के खिला़फ न होते हुए केवल किसान, समाज, राज्य व राष्ट्रहित सम्बन्धी समस्या को ले कर चल रहा है। हमने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ‘‘भूमिअर्जन पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रकार व पारदर्शिता अधिकार (संशोधन) विधेयक 2015’’ किस प्रकार किसानों के हित विरोधी है। सरकार से अनुरोध है कि, हमारे प्रतिपादन में यदि कोई त्रुटियॉं हों तो जवाबी ख़त से हमें अवगत कराये, ता कि आन्दोलनकारी अपनी गलती को समझ पाएं। और यदि त्रुटियॉं न हों तो इस विधेयक में उचित संशोधन कर के किसानों की हितरक्षा करने वाला कानून बना दिजीए।


सरकार बार बार कह रहीं है की, भूमिअधिग्रहण अध्यादेश किसानों के हित में है, लेकिन उपरोक्त प्रावधानों को देखते हुए ऐसा लगता है की, यह अध्यादेश साफ तौर पर किसान हित के विरोध में है। इसलिए अध्यादेश का पूरी तरह गम्भीरता से अध्ययन कर के हमने उपरोक्त मुद्दे उठाएं है। ऐसे स्थिती में किसानों के हित के बारे में, सरकार का कहना सच है या हमने उठाएं मुद्दे यह जनता के सामने स्पष्ट होना जरुरी है। इसलिए हमारे इस पत्र के जवाब मे सरकार की राय हमें 25 अप्रील तक मिलने की आशा करते है।
सधन्यवाद,
         
भवदीय,

 कि. बा. उपनाम अण्णा हजारे

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